Thursday, September 15, 2011

अन्ना, हम और वन्दे मातरम्

पहली बार थोड़ी सी जनता ने तंत्र को लोकतंत्र  सिद्ध किया है. आजादी के चौंसठ साल तक सरकार ज्यादातर जन आंदोलनों की उपेक्षा और बेइज्‍जती करती रही, चाहे वो ट्रेड यूनियन के मजदूर हों, किसान हों, आदिवासी हों या अन्य कोई भी आंदोलन… सबको सरकार लाठी और बंदूक से दबाती रही. आज वही सरकार  हाथ जोड़ कर आंदोलन का आदेश मानने को तत्पर दीख रही है.

जनता जहां खड़ी है सफर तो वहीं से शुरू करना पड़ेगा. नि:संदेह जनता की अपनी एक समझ है साहब, हम तथाकथित अक्लमंद प्रगतिशील लोग उसे कहीं बहुत ऊंचा देखना चाहते हैं पर वो हमारी बात समझती नहीं और समझे भी कैसे ?
जहां आज जनता है, वहां पूंजी है, वहीं जाति भी है पर वहीं से नये जमाने में जाने का सफर शुरू करना पड़ेगा और इसलिए सफर के शुरू में यही सब दिखेगा जो इस आन्दोलन में दिखा. अपनी जाति में अपने बच्‍चों की शादी करते पर जातिविहीन समाज बनाने की चाहत वाले लोग.  हम सब मध्य वर्ग से हैं पर मध्य वर्ग को गाली देने में भी संकोच नहीं करते.  हम सब पूंजी पर पलते हैं,  हम में से कोई खेती या मजदूरी कर के अपना पेट नहीं पालता पर पूंजी को गाली देते हैं।

इसमें कोई पाप नहीं है। असल में हम सब इसमें से निकलना चाहते हैं। इसलिए हमें स्वीकार करना चाहिए कि जहां दूसरे खड़े हैं हम सब भी वहीं खड़े हैं... पर ये सब  मुझे सोचने का नया विषय दे रहा है. आज अगर भाजपा सत्ता में होती, तो कांग्रेस इस आंदोलन का समर्थन नहीं करती क्या?  कांग्रेस सत्ता में है तो भाजपा का समर्थन करना स्वाभाविक है। 

अन्ना के इस आंदोलन के प्रति कुछ समझदार लोग पहले कुछ आश्चर्य से, फिर ईर्ष्‍या से और फिर नफरत से भर गये क्यूंकि वे स्वयं ऐसे आन्दोलन को पैदा न कर सके इसलिए इस आंदोलन को खाये-पीये मध्यम वर्ग का फैशनेबल आंदोलन कह कर खारिज करने लगे. पर जरा दिल पर हाथ रख कर कहिए देश के कौन से आंदोलन में मिडिल क्लास लीडरशिप नहीं कर रहा, धुर दक्षिणपंथी राम मंदिर आंदोलन से लेकर धुर वामपंथी नक्सल आंदोलन तक सब जगह मध्यम वर्ग ही लीडरशिप कर रहा है, तो अब कौन सी नयी बात हो गयी है.

पर हां कुछ है जो चुभता है, जिस संसद की मर्यादा की दुहाई सरकार के मंत्री दे रहे हैं, क्या वे बताएँगे कि जब बिना चर्चा के बिल पास हो जाये तो वो क्या है?  जिस संसद को बचाने के लिए जवानों ने प्राण दिए, उनकी बरसी भी याद नही रखना क्या है? सीएजी  की रिपोर्ट को बकवास बताना क्या है?  अभी तो किरण बेदी और ओमपुरी के बयानों पर हायतौबा मचाई जायेगी, संसद और विधानसभा की गरिमा की बात तो है  पर संसद में माइक और मेज तोडना क्या है? सदन में नोटों कि गड्डियां लहराना क्या है?

विधायिका का प्रमुख काम है कानून बनाना, लेकिन महत्वपूर्ण कानून बिना चर्चा के पारित हो जाते हैं और  इन कानूनों से ही देश-राज्य की व्यवस्था और नागरिकों की जिंदगी चलनी है. क्या किसी को हक है कि किसी सुविचारित प्रक्रिया से गुजरे बगैर कानून बना दे?  इन माननीयों को कौन समझाए की इससे संसद की गरिमा बढेगी और एक अच्छे लोकपाल के जरिये सरकार युवाओं को भरोसा दे सकती है कि हम सच में एक प्रगतिशील लोकतान्त्रिक देश हैं.

अन्ना,  बेशक इज्ज़त के काबिल हैं लेकिन वे भी अब व्यर्थ की जिद ले कर बैठे हैं. कुछ दिनों में संसद द्वारा बिल पास करने की मांग बेतुकी है. ऐसा ना हो अन्ना जी कि जो युवा आज आपके साथ है, वो कल ना रहे, अतः सरकार से बात-चीत आगे बढायें.  भ्रष्टाचार से हम सब त्रस्त हैं और इसका एक व्यावहारिक समाधान चाहते हैं.

महात्मा गाँधी ने भी कहा था “मुझे जो बात आज सत्य लगती है उसे मैं आज सत्य कहूंगा कल अगर कोई दूसरी बात सत्य लगी तो अपनी आज की बात से बिलकुल मुकर जाऊंगा.” संभव है हम किसी बात पर मतभिन्नता रखते हों पर जाने दीजिये बाकि बातों को और यदि आपने अपने दिल से अन्ना बाबा का समर्थन किया है तो आइये मिलकर कुछ आगे बढ़ें.

वन्दे मातरम्