पिछले दिनों मध्य प्रदेश में था, गया तो अपनी उमा दीदी से मिलने था कि चलो उनके हाल-चाल ले लूँ पर वहां कुछ ऐसा देखा कि बस... एक वो सुनहरा वक्त था जब हमारी लेखनी से, प्रकाशित होने वाली सामग्री से अखबारों की पहचान हुआ करती थी. अच्छी सामग्री देने के लिये अखबारों में प्रतिस्पर्धा हुआ करती थी और हम अच्छी पत्रकारिता का आनंद लेते थे. युग बदला, अब प्रतिस्पर्धा प्रमुखतः प्रसार संख्या की है और प्रसार संख्या बढाने की अंधी दौड़ में बेचारा कंटेंट तो जैसे कहीं खो सा गया है.
येन-केन प्रकारेण पाठकों को अपनी ओर खींचने की प्रकाशन समूह की दीवानगी यहाँ साफ़ नजर आती है, इसके लिये पाठकों पर उपहारों की बौछार की जाने लगी है यानी उनकी पौ-बारह, और साहब हॉकरों को तो पटाया जा रहा है, गोया बीवी हों. इन हॉकरों के सामने करोड़पति-अरबपति अखबार मालिक घिघियाते दिखाई देते हैं. उन्हें लगता है कि यदि हॉकर नाराज हो गया तो उनका अखबार कहीं का नही रहेगा. पिछले कुछ सालों में तो हॉकरों का जलवा कहां से कहां तक पहुंच गया. कहीं सैर, कहीं उपहार, इस गलाकाट स्पर्धा ने जहां हॉकरों को मालदार आसामी बना दिया है वहीं पाठकों के घरों में तो जैसे दिवाली है. काश! मैं भी एक हॉकर होता तो कम से कम सारे चैनल हेड और अखबार वाले मुझ गरीब पर भी अपनी थोड़ी कृपादृष्टि करते.
सर्वाधिक प्रसार संख्या वाला अखबार ‘‘दैनिक भास्कर’’ अपने आप को शिखर पर बनाये रखने के लिये तमाम तरह की स्कीमों का सहारा ले रहा है तो पत्रिका, पीपुल्स समाचार, नईदुनिया, हरिभूमि कैसे पीछे रहें. अपने प्रभाष जी कि नईदुनिया ने भी मजबूरन ही सही उन तमाम तरह के उपायों या हथकंडों को अपनाना शुरू कर दिया है जो पहले कभी उसने नहीं अपनाये. पाठकों को अपनी ओर खींचने और उन्हें लुभाने के लिये शायद ही कोई ऐसा अखबार होगा जो अपने पाठकों को उपहार न बांट रहा हो. इतना ही नहीं, पृष्ठों की संख्या में भी जबरदस्त बढोतरी की गई है ताकि पाठक अखबार की रद्दी को बेचकर अखबार पढने का खर्च निकाल सके. शायद यही कारण है कि अब पाठक किसी भी अखबार को लेने के पहले सबसे पहला सवाल यही करता है कि स्कीम क्या है , साथ में क्या दोगे और अखबार कितने पेजों का है यानि उसे भी अब सामग्री से कोई सरोकार नहीं है. उसकी निगाह में पृष्ठ संख्या और गिफ्ट ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं. अखबार अब साबुन, शेम्पू, टब, चादर, तौलिया, डिनर सेट, टार्च, सिर में लगाने और खाने का तेल तक बांट चुके हैं, अब बनियान और चड्ढियां ही स्कीम में देने बचे हैं. मार्केटिंग का जमाना है, यहाँ पा+गल भी समझता है कि जो बिकता है वही दिखता है. अब लाला जगत नारायण और प्रभाषजी का नाम सही अर्थों में लेने कि औकात कितने पत्रकारों क़ी है. जवाब उनके पास है नहीं और मैं पूछ कर उन्हें शर्मिंदा भी नहीं करूँगा. पत्रकारिता की इससे बढकर और दुर्गति भला क्या हो सकती है.