Tuesday, July 15, 2014

हिंदी भाषा की अलिखित मर्यादा

स्त्री या पुरुष द्वारा सार्वजनिक मंचों पर अपमानजनक भाषा का प्रयोग किसी के लिए भी नहीं किया जाना चाहिए. दो इंसानों में रिश्तों का बनना-बिगड़ना चलता रहता है, कभी परम मित्र दुश्मन बन जाते हैं, कभी दुश्मन दोस्त बन जाते हैं, किसी से असहमति अथवा नाराजगी जताने के लिए कम से कम सार्वजनिक मंचों पर तो इसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से भाषा पर नहीं पड़ना चाहिए, यदि क्रोध में कभी ऐसा हो तो उसे सुधार लिया जाना चाहिए. यह स्त्री व पुरुष दोनों पर ही समान रूप से लागू होता है. 

ऐसा मेरा मानना है कि  भाषा के आविष्कार के पीछे मकसद गालीगलौज अथवा अपशब्दों का प्रयोग तो नहीं ही रहा होगा. यहाँ कई उद्धरण केवल लिखने वाले की बीमार मानसिकता का ही परिचय देते हैं. आम पढने वाला ही जब आहत होता है तो जिसे इंगित किया गया हो उसकी मनोदशा का क्या वर्णन हो सकता है. 

कभी कभी कुछ लोग ऐसा कह जाते हैं कि समझ में नहीं आता, आप के समक्ष संज्ञान के लिए ज्यों का त्यों रख रहा हूँ.  " ऐसों को इसी प्रकार तेल में छड़ी भिगोकर सूतना चाहिए.
सबसे पहले तो शर्म आनी चाहिए उन बागड़ बिल्लों को जो इस नीचता तक उतर आए कि सरेआम किसी स्त्री को गालियाँ दे रहे हैं. खुद को मर्द समझने वाले इन नामर्दों से बड़ा कोई नपुंसक नही है. अपने घरों में बैठकर किसी स्त्री पर अश्लील व अभद्र बकवास पेलना बहुत आसान है और समझते हैं खुद को मर्द. ज्यादा मर्दानगी फूट रही है तो आइये कभी मैदान में, कम से कम किसी स्त्री का अपमान तो हम नही सहेंगे.वहीँ माँ और बहन का संबोधन देकर भी उसे जलील करने वाले दरअसल अपनी माँ-बहन को ही भरे बाज़ार नंगा कर रहे हैं.  इनसे बड़ा पापी कौन होगा ?

शर्म तो तब आती है जब नारी मुक्ति के नाम का झुनझुना खेलने वाली कुछ नारियां इन नपुंसकों की प्रेरणा स्त्रोत बनी हुई हैं. क्या इन्हें एक स्त्री को पड़ने वाली गालियाँ दिखाई नही दे रही थीं ? और यदि दिख रही थीं तो क्यों नही इसके विरोध में आवाज़ उठाई ? किस बात की प्रतीक्षा थी ? क्या टिप्पणियाँ या फोलोअर्स खो देने का डर था ? या इन नपुंसकों से दोस्ताना चल रहा है ? या फिर खुद के गाली खाने की प्रतीक्षा में कतार लगाए कड़ी हैं ?  ऐसी नारियों को तो कम से कम नारी मुक्ति की बात नही करनी चाहिए.  इनमे शर्म बाकी है तो कम से कम इन बागड़ बिल्लों का साथ छोड़ दें व सामूहिक रूप से इनका बायकॉट करें तभी समझ में आएगा कि ये भी भारतीय नारियां हैं.

अरे क्यों करें एडजस्ट ? आज किसी पराई स्त्री को गाली पड़ रही है, किसी पराई स्त्री का अपमान हो रहा है, क्या एडजस्ट करते करते हम उस दिन का इंतज़ार नही कर रहे जब हमारी सगी माँ बहनों को गालियाँ पड़ें ? और बात केवल एक स्त्री की ही नही है. बात है नैतिक मूल्यों की. क्या केवल व्यक्तिगत आक्षेप लगाना ही मकसद है या फिर राखी सावंत बनने की इच्छा है. यहाँ राखी सावंत का नाम लेने पर मुझपर भी महिला का अपमान करने का आरोप लग सकता है. जिसे लगाना है लगा ले, मैं कोई स्पष्टीकरण नही दूंगा. जो लोग इन परिस्थितियों में एडजस्ट करने की सलाह दे रहे हैं, वे या तो गांधी जी के बन्दर हैं ( न कुछ देखो, न सुनो, न बोलो ) या फिर ब्लॉग जगत के मनमोहन सिंह, जो केवल निंदा करना जानते हैं, कोई ठोस कदम उठाना नही."

ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि हम विचारो के आदान प्रदान में भाषागत शुचिता का ध्यान नहीं रख सकते तो बाकी बाते गौण हो जाती हैं. व्यक्तिगत द्वेष के कारण किया गया लेख साहित्य की श्रेणी में नहीं आता. साहित्य लेखन की श्रेणियाँ हो सकती हैं, वर्गीकरण हो सकता है. निकृष्ट साहित्य बैसाखियों के सहारे चल भले ही ले पर दौड़ नहीं सकेगा. अब बात आती है भाषागत गन्दगी फैलाने की. यह निंदनीय तो है ही  इसे दंडनीय भी किया जाना चाहिए. हर भाषा, हर शब्द, हर व्यक्ति का सम्मान होना ही चाहिए और इस अलिखित मर्यादा का पालन हर लेखक के लिए अपरिहार्य.