एक- यदि हम अधिक पीछे न जायें तो जून 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती गांधी को चुनाव में भ्रष्ट आचरण का दोषी पाकर छह सालों के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहरा दिया था। न्यायालय के इस निर्णय के खिलाफ “प्रायोजित प्रदर्शन” करवाये गये। जज का पुतला जलाया गया। श्रीमती गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय में फैसले के खिलाफ अपील की। उनके वकील ने न्यायालय से कहा, ‘’सारा देश उनके (श्रीमती गांधी के) साथ है। उच्च न्यायालय के निर्णय पर ‘स्टे’ नहीं दिया गया तो इसके गंभीर परिणाम होंगे।” सर्वोच्च न्यायालय ने सशर्त ‘स्टे’ दिया। देश में आपात स्थिति लागू कर दी गई, हजारों लोगों को जेलों में बंद कर दिया गया। चुनाव-कानूनों में इस प्रकार परिवर्तन किया गया कि जिन मुद्दों पर श्रीमती गांधी को भ्रष्ट-आचरण का दोषी पाया गया था वे आपत्तिजनक नहीं माने गये, वह भी पूर्व-प्रभाव के साथ। कहा गया कि तकनीकी कारणों से जनादेश का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। “तथाकथित प्रगतिशील” लोगों ने इसकी जय-जयकार की, उस समय किसी को न्यायपालिका के सम्मान की याद नहीं आई थी।
दो- कई वर्षों की मुकदमेबाजी तथा नीचे के न्यायालयों के कई आदेशों के बाद आखिरकार 1983 में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि वाराणसी में शिया-कब्रगाह में सुन्नियों की दो कब्रें हटा दी जायें। उत्तर प्रदेश के सुन्नियों ने इस निर्णय पर बवाल खड़ा कर दिया, हमेशा की तरह। उत्तर प्रदेश की सरकार ने कहा कि न्यायालय का आदेश लागू करवाने पर राज्य की शांति, व्यवस्था को खतरा पैदा हो जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ही आदेश के कार्यान्वयन पर दस साल की रोक लगा दी। लेकिन संविधान के किसी “हिमायती” ने जबान नहीं खोली।
तीन- 1986 में सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित किया कि, जिस मुस्लिम पति ने चालीस साल के बाद अपनी लाचार और बूढ़ी पत्नी को छोड़ दिया है, उसे पत्नी को गुजारा भत्ता देना चाहिये। इसके खिलाफ भावनाएँ भड़काई गईं। सरकार ने डर कर संविधान इस प्रकार बदल दिया कि न्यायालय का फैसला प्रभावहीन हो गया। राजीव भक्तों ने कहा कि यदि “ऐसा नहीं करते तो मुसलमान हथियार उठा लेते”। उस समय सभी सेकुलरवादियों ने वाह-वाह की, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को जूते लगाने का यह सबसे प्रसिद्ध मामला है।
चार- अक्तूबर 1990 में जब वी.पी.सिंह ने मण्डल को उछाला तो उनसे पूछा गया कि यदि न्यायालयों ने आरक्षण-वृद्धि पर रोक लगा दी तो क्या होगा? उन्होंने घोषणा की- हम इस बाधा को हटा देंगे, यानी संसद और विधानसभाओं में बहुमत के आधार पर न्यायालय के निर्णय को धक्का देकर गिरा देंगे, “प्रगतिशील” लोगों ने उनकी पीठ ठोकी… न्यायालय के सम्मान की कविताएं गाने वाले दुबककर बैठे रहे।
पांच- 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने कावेरी जल विवाद पर अपना फैसला सुनाया-
“न्यायाधिकरण के आदेश मानने जरूरी हैं” परन्तु सरकार ने आदेश लागू नहीं करवाये। कभी कहा गया कर्नाटक जल उठेगा तो कभी कहा गया तमिलनाडु में आग लग जायेगी…जो उखाड़ना हो उखाड़ लो, न्यायपालिका के सम्मान की बात तो कभी किसी ने नहीं की?
“न्यायाधिकरण के आदेश मानने जरूरी हैं” परन्तु सरकार ने आदेश लागू नहीं करवाये। कभी कहा गया कर्नाटक जल उठेगा तो कभी कहा गया तमिलनाडु में आग लग जायेगी…जो उखाड़ना हो उखाड़ लो, न्यायपालिका के सम्मान की बात तो कभी किसी ने नहीं की?
छह- राज्यसभा में पूछे गये एक सवाल- कि रेल विभाग की कितनी जमीन पर लोगों ने अवैध कब्जा जमाया हुआ है? रेल राज्य मंत्री ने लिखित उत्तर में स्वीकार किया कि रेलवे की 17 हजार एकड़ भूमि पर अवैध कब्जा है तथा न्यायालयों के विभिन्न आदेशों के बावजूद यह जमीन छुड़ाई नहीं जा सकी है क्योंकि गैरकानूनी ढंग से हड़पी गई जमीन को खाली कराने से “शांति भंग होने का खतरा” उत्पन्न हो जायेगा… किसी सेकुलर ने, किसी मान्यवर महोदय ने, कभी नहीं पूछा कि “न्यायालय का सम्मान” किस चिड़िया का नाम है, और जो मान्यवर सरकारी ज़मीन दबाये बैठे हैं उन्हें कब हटाया जायेगा?
सात- अफ़ज़ल गुरु को सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ाँसी की सजा कब की सुना दी है, उसके बाद दिल्ली की कांग्रेसी सरकार चार साल तक अफ़ज़ल गुरु की फ़ाइल दबाये बैठी रही, अब प्रतिभा पाटिल जी की बारी है…
कहाँ है सम्मान, हमारे सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय और उसका और हमारा सम्मान... गया तेल लेने।
कहाँ है सम्मान, हमारे सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय और उसका और हमारा सम्मान... गया तेल लेने।
आठ- लाखों टन अनाज सरकारी गोदामों में सड़ रहा है, शरद पवार बयानों से महंगाई बढ़ाये जा रहे हैं, कृषि की बजाय क्रिकेट पर अधिक ध्यान है। सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि अनाज गरीबों में बाँट दो, लेकिन आई ऍम ऍफ़ और विश्व बैंक के मर्मज्ञ मनमोहन सिंह ने कहा कि “ नहीं बाँट सकते, हमारे मामले में दखल मत दो।"
कोई बतायेगा किस गोदाम में बन्द है न्यायपालिका का सम्मान ?
हम लेखक के आभारी हैं : जन सुनवाई